Swami Vivekanand biography in hindiस्वामी विवेकानंद जी का जीवन परिचय
सन् 1893 में स्वामी विवेकानन्द जी ने अमेरिका स्थित शिकागो में आयोजित विश्व धर्म महासभा में भारत की ओर से सनातन धर्म का प्रतिनिधित्व किया था । वहा स्वमी जी ने सनातन धर्म की इस प्रकार से व्याख्या किया की सनातन धर्म विश्व पटल पर विख्यात हो गया । स्वामी जी ने सम्पूर्ण विश्व में हिन्दूधर्म को महत्वपूर्ण स्थान दिलाया । स्वामी जी का जन्म जन्म १२ जनवरी सन् 1863 को कलकत्ता में एक कायस्थ परिवार में हुआ था। स्वामी विवेकानन्द जी एक धर्म गुरु ,समाज सुधारक थे . स्वामी विवेकानंद जी का जीवन परिचय विस्तार से जानेंगे .
स्वामी विवेकानन्द जी का प्रारम्भिक जीवन तथा पारिवारिक परिदृश (Early life and family scene of Swami Vivekananda)
स्वामी विवेकानन्द का जन्म१२ जनवरी सन् 1863 को कलकत्ता में मकर संक्रांति के दिन एक सम्पन कायस्थ परिवार में हुआ था। उनके बचपन का घर का नाम वीरेश्वर रखा गया था . बाद में उन्हें नरेन्द्रनाथ दत्त कहा जाने प्यार से इनको नरेंद्र कहकर बुलाते थे.
स्वामी विवेकानन्द के पिता (Swami Vivekananda’s father)
विश्वनाथ दत्त कलकत्ता उच्च न्यायलय में अभिवक्ता थे । जो की कोलकाता के हाई कोर्ट में बहुत ही एजुकेटेड ,लिबरल और प्रोग्रेसिव व्यक्ति थे ।संस्कृत पर्शियन इंग्लिश हिंदी उर्दू जैसी कई भाषाएं इन्हें आती थी । इन्होंने संस्कृत में हिंदू शास्त्र पढ़े थे ,इंग्लिश में बाइबल पड़ी थी और प्रशियन में दीवाने हफीज पड़ी थी । इनके पिता विश्वनाथ दत्त दान-पुन्य करने वाले ( चैरिटेबल वाले) पुरुष थे । उन्हें संगीत का भी सौख था । विवेकानंद में संगीत प्रेम अपने पिता से आए थे।
स्वामी विवेकानन्द के माता (Mother of Swami Vivekananda)
भुवनेश्वरी देवी एक धार्मिक घरेलु महिला थी । जिसका अधिक से अधिक समय भगवन शिव की पूजा-अर्चना में व्यतीत होता था। धर्म में रूचि होने के कारण उन्हें रामायण, महाभारत ,पुराण की कथा सुनने का बहुत शौक था । स्वामी जी की माता ने उनको यह शिक्षा दी थी । कि अगर तुम सच के साथ खड़े होते हो तो तुम्हें कभी न कभी तो अन्याय झेलना पड़ सकता है, मुश्किलें आ सकते हैं ,लेकिन फिर भी कभी भी सच का साथ मत छोड़ना । इसी से संबंधित उन्होंने एक बात और कही थी कि नरेंद्र लोग उल्टा सीधा कहेंगे तो तुम अपना सम्मान बचाने की कोशिश करना लेकिन ऐसा करते हुए कभी सामने वाले को नीचा दिखाने की कोशिश मत करना ।
स्वामी विवेकानन्द के दादा (Swami Vivekananda’s grandfather)
इनके दादा जी दुर्गाचरण दत्ता संस्कृत और रशियन भाषा के स्कॉलर थे । विधि में उन्होंने पढ़ाई की थी । 25 वर्ष की उम्र में ही इन्होंने घर त्याग दिया था और साधु (मोंक) बन गए थे । इसीलिए नरेंद्र के लिए एक मोंक बनना कोई अनसुनी या अजीब बात नहीं थी ।
नरेन्द्र बचपन से ही बहोत नटखट थे और अपने साथ के बच्चो के साथ भी खूब शरारत करते थे । वो इतने शरारती थे कि उनकी माँ अक्नेसर उन्हें भुत कहेकर बुलाती थी । इसका कारण था कि उन्होंने भगवान शिव से हमेशा से एक बालक देने की प्रार्थना करती थी और उन्होंने यह प्रार्थना स्वीकार की और किसी भूत को भेज दिया।
नरेंद्र के परिवार का वातावरण आध्यात्मिक होने के कारण उनके भी मन में बचपन से ही अध्यात्म के तरफ झुकाव बढ़ता गया तथा ईश्वर को जानने की जिज्ञासा उनके मन में तीव्र होती चली गई । कभी-कभी नरेंद्र अपने घर पर आए हुए कथावाचकओ से या फिर घर के अन्य सदस्यों से ईश्वर के बारे में जानने के लिए कुछ ऐसे प्रश्न कर देते थे जिससे अक्सर लोग सोच में पड़ जाते थे ।
ये नियमित रूप से शारीरिक व्यायाम में व खेलों में भाग लिया करते थे।
स्वामी विवेकानन्दकी शिक्षा (Education of Swami Vivekananda)·
स्वामी विवेकानन्द का प्रारम्भ शिक्षा उनके घर में ही हुआ ।1871 में 8 वर्ष की आवस्था में नरेंद्र का दाखिला मेट्रोपॉलिटन इंस्टीट्यूशन में करवाया गया । इस इंस्टिट्यूशन के हेड थे ईश्वर चंद्र विद्यासागर । यह वही समाज सुधारक थे जिसकी वजह से विधवा पुनर्विवाह वैध हो पाया था । आज के समय में इस इंस्टिट्यूशन का नाम है विद्यासागर कॉलेज यहां से इन्होंने अपनी स्कूलिंग की ।
1877 में वे अपने परिवार के साथ रायपुर चले गए फिर एक साल बाद 1879 में अपने घर वापस आ गये गए। इसके बाद 1879 में इन्होंने प्रेसीडेंसी कॉलेज ज्वाइन किया . कलकत्ता के प्रसिडेंसी कॉलेज के परवेश परीक्षा में प्रथम डिविजन से पास होने वाले वे एक मात्रछात्र थे।
यह वही पहेला हिंदू कॉलेज था जिसे डेविड हेयर और कुछ दूसरे लोगों ने शुरू किया था । राजा राम मोहन रॉय जो की इस कॉलेज के संस्थापक और गाइडेंस थे । उनके ही गाइडेंस के अंदर यह कॉलेज था । जहां पर हेनरी डेरे उजियन ने छात्रो में स्वतन्त्र विचार रखने तथा शिक्षको से सवाल करने का का विस्तार किया । फिर से नरेंद्र एक ऐसी जगह पर पढ़े रहे थे जहां पर स्टूडेंट को स्वतन्त्र विचार पर सवाल करने के लिए उत्साहित किया जाता था .
कॉलेज के समय में हो रहे कॉलेज के खेल कूद प्रतियोगिता में हमेंसा भाग लेते थे।
1881 में इन्होंने ललित कला की परीक्षा उत्तीर्ण की । तथा उन्होंनो भारतीय शास्त्रीय संगीत में प्रशिक्षण हासिल किया हुआ था। वे इस प्रशिक्षण में निपुण भी थे। 1884 में वे बी ए की परीक्षा में अच्छे अंक लेकर पास हुए । फिर उन्होनें वकालत की पढ़ाई भी की।
कॉलेज की पढ़ाई के साथ ही साथ उन्होंने हिंदू स्क्रिप्चर और हिंदू दर्शन, को भी बहुत गहेंनता से पढ़ा था । हिंदू धर्म ग्रंथों मे स्वामी जी को बहुत रूचि थी जैसे वेद, उपनिषद,भगवत गीता, रामायण, महाभारत और पुराण तथा कई हिंदू शास्त्रो का गहन अधियान किए थे। वे दर्शन , धर्म , इतिहास ,सामाजिक विज्ञानं ,कला और साहित्य जैसे विषयों को भी बहुत रूचि लेकर पड़ते थे . इसके साथ ही साथ इन्होंने संस्कृत ग्रंथों और बंगाली साहित्य का भी अध्ययन किया । स्कांतिश चर्च कॉलेज असेंबली इस्टीट्यूशन से पश्चिमी तर्क, पश्चिमी दर्शन और यूरोपीय इतिहास का अध्ययन किए।
स्वामी जी ने कुछ पश्चिम दार्शनिकों का अध्ययन किया था – जैसे इमैनुएल कांड , जॉन स्टूअर्ट मिल ,चार्ल्स डार्विन , जोर्ज डब्लू एच हेजेल , जोहान गोटलिब फिच और हरबर्ट स्पेंसर जैसे लोग हरबर्ट स्पेंसर से स्वामी विवेकानंद बहुत प्रभावित थे कि इन्होंने 1860 में उनकी किताब एजुकेशन को बंगाली में ट्रांसलेट भी कर दिया था । उन्होंनो भारतीय शास्त्रीय संगीत में प्रशिक्षण हासिल किया हुआ था। वे इस प्रशिक्षण में निपुण भी थे।
महासभा संस्था के प्रिंसिपल विलियम हेस्टी ने इन्हें वास्तव में एक जीनियस माना है
स्वामी विवेकानन्द जी पर ब्रह्म समाज का प्रभाव (Influence of Brahmo Samaj on Swami Vivekananda)
नरेन्द्र की बुद्धि बचपन से बड़ी तीव्र थी और परमात्मा को पाने की लालसा भी प्रबल थी। वे वेदान्त और योग को पश्चिम संस्कृति में प्रचलित करने के लिए महत्वपूर्ण योगदान देना चाहते थे। इस हेतु उन्हों ने कॉलेज के बाद ब्रह्म समाज के एक गुट को ज्वाइन किया ।
(उस समय ब्रह्म समाज कई गुटो में बटा था ) किंतु वहां उनके ह्रदय को संतोष नहीं हुआ। जहां पर उन्हें अपने जैसे लोग मिले जिनकी एक जैसी दिलचस्पी थी । इनका विश्वास शंकराचार्य के अद्वैतवाद के सिद्धांत में था जिसमे शंकराचार्य ने उपनिषद के आधार पर अद्वैतवाद का सिद्धांत दिया था । अहम् ब्रह्मास्मि तुमचा । अर्थात मैं भी ब्रह्म तुम भी ब्रह्म सब कुछ उसी ब्रह्म से बना हुआ है आत्मा और परमात्मा अलग नहीं है दो लोगों के बीच में क्यों फर्क है दूसरों को खुद में और खुद को दूसरों में देखो यही अद्वैत का सिद्धांत है ।
उनके प्रारम्भिक विश्वासों को ब्रह्म समाज ने एक निश्चित विचार प्रदान किया जो कि एक निराकार ईश्वर में विश्वास करता था, ने ब्रह्म समाज इनके विचारो को प्रभावित किया और सुव्यवस्थित, अद्वैतवादी अवधारणाओं , धर्मशास्त्र ,वेदांत और उपनिषदो के एक चयनात्मक और आधुनिक ढंग से अध्यन के लिए प्रोत्साहित किया। बाद में ब्रह्म समाज में भी इनके ह्रदय को संतोष नही प्राप्त हुआ ।
स्वामी विवेकानंद जी का अपने गुरु रामकृष्ण परमहंस के लिए विश्वाश (Swami Vivekananda’s faith in his Guru Ramakrishna Paramhansa)
स्वामी विवेकानंद जी को बचपन से ही ईश्वर को जानने की जिज्ञासा थी । इसीलिए उन्होंने एक बार महाऋषि देवेंद्र नाथ से सवाल पूछा क्या आपने कभी भगवान को देखा है? उनके इस सवाल को सुनकर महर्षि देवेंद्र आश्चर्य में पड़ गए। उनकी जिज्ञासा को शांत करने के लिए उन्होंने रामकृष्ण परमहंस के पास जाने की सलाह दी । स्वामी जी रामकृष्ण परमहंस से इतना प्रभावित हुए कि उन्होंने उन्हें अपना गुरु बना लिया ।
इस तरह उनके मन में अपने गुरु के प्रति कर्तव्यनिष्ठा बढ़ती चली गई। गुरु और शिष्य के बीच का रिश्ता बहोत मजबूत होता चला गया। 1885 में रामकृष्ण परमहंस मुंह के कैंसर जैसे असाध्य रोग से पीड़ित थे। तब उनके किसी शिष्य ने गुरुदेव की सेवा में घृणा और निष्क्रियता दिखा दी थी। जिसे देख कर स्वामी को बहुत बुरा लगा। तब स्वामी जी ने अपने गुरु की सेवा स्वयं ही करने लगे । साथ ही साथ अपने गुरुदेव के बिस्तर के पास से रक्त, कफ तथा थूक भरी थूकदानी उठाकर स्वयं फेंकते थे। एक तरह से स्वामी जी ने स्वयं के अस्तित्व को गुरुदेव के स्वरूप में विलीन कर दिया था । गुरुदेव के शरीर-त्याग के दिनों में अपने घर और परिवार की नाजुक हालत व स्वयं के भोजन की चिंता किए बिना वे गुरु की सेवा में लगातार लीन रहे।
रामकृष्ण मठ की स्थापना
रामकृष्ण मठ की स्थापनास्वामी जी ने 16 अगस्त 1886 को रामकृष्ण परमहंस के निधन के बाद वराहनगर में रामकृष्ण संघ की स्थापना की। परंतु कुछ समय बाद इस संघ का नाम रामकृष्ण मठ कर दिया गया। इसकी स्थापना के बाद स्वामी जी ने केवल 25 वर्ष की अवस्था में ब्रह्मचर्य ले लिया और नरेंद्र से स्वामी विवेकानंद के रूप में विख्यात हो गये ।
स्वामी विवेकानंद जी का भारत यात्रा
ब्रह्मचर्य लेने के तत्पश्चात उन्होंने पैदल ही पूरे भारतवर्ष की यात्रा की । रामकृष्ण मिशन की स्थापना स्वामी विवेकानंद ने 1 मई 1897 को रामकृष्ण की स्थापना की। इस मिशन का मुख्य उद्देश्य नव भारत के निर्माण और अस्पताल, स्कूल, कॉलेज और साफ-सफाई के क्षेत्र में कदम बढ़ाना था । स्वामी जी साहित्य, दर्शन और इतिहास के विद्धान थे। उन्होंने अपने ज्ञान से सभी को प्रभावित कर दिया था।
उस समय वे नौजवानों के लिए आदर्श बन गए थे। स्वामी जी ने साल 1898 में बेलूर मठ की स्थापना की और भी दो मठों की ओर स्थापना की। इन मठों के माध्यम से उन्होंने भारतीय जीवन दर्शन और संस्क्रती को आम जन तक पहुंचाया।
स्वामी जी अपनी पैदल यात्रा के दौरान अयोध्या, वाराणसी, आगरा, वृन्दावन, अलवर समेत कई जगहों का भ्रमण किया। इस यात्रा के दौरान उन्होंने कई भेदभाव व कुरूतियों का पता कर उन्हें मिटाने के लिए उन्होंने भरपूर प्रयास किया। इस यात्रा के दौरान वे राजाओं के महल से लेकर गरीबो लोगों की झोपड़ी तक में भी रुके। 23 दिसंबर 1892 को विवेकानंद कन्याकुमारी पहुंचे वहा पर वे 3 दिन तक रुके जहाँएक गंभीर समाधि में रहे। यहां से लौटकर राजस्थान के आबू रोड में अपने गुरुभाई स्वामी ब्रह्मानंद और स्वामी तुर्यानंद से मिले थे। इनसे मुलाकात के बाद अमेरिका जाने का फैसला लिया था।
स्वामी विवेकानंद जी की विदेश यात्रा
स्वामी विवेकानन्द जी की विदेश यात्रा विवेकानंद ने 31 मई 1893 को अपनी विदेश यात्रा शुरू की और जापान के कई शहरों का दौरा किया और फिर चीन और कैनडा होते हुए1893 में अमेरिका के शिकागो पहुँचे उस समय अमरीका में विश्व धर्म परिषद् हो रही थी।
स्वामी विवेकानन्द उसमें भारत के प्रतिनिधि के रूप में पहुँचे। योरोपिय -अमरीका के लोग उस समय पराधीन भारतवासियों को बहुत हीन दृष्टि से देखते थे। वहाँ लोगों ने बहुत प्रयास किया कि स्वामी विवेकानन्द को सर्वधर्म परिषद् में बोलने का समय मिले। एक अमेरिकन प्रोफेसर के प्रयास से उन्हें थोड़ा समय मिला।
इस दौरान एक जगह पर कई धर्मगुरुओं ने अपनी किताब रखी। वहीं, भारत के धर्म के वर्णन के लिए श्रीमद् भगवत गीता रखी गई थी। जिसका खूब मजाक उड़ाया गया था। लेकिन स्वामी विवेकानंद के आध्यात्मिक ज्ञान से भरे भाषण को सुनकर पूरा सभागार तालियों से गूंज उठा था। उन्हें अपने धर्म के बारे में बताने के लिए सिर्फ दो मिनट का समय दिया गया था। लेकिन उन्होंने अपने भाषण की शुरुआत इस तरह की जिससे वहां उपस्थित सभी लोग मंत्रमुग्ध हो गए थे। फिर तो अमरीका में उनका अत्यधिक स्वागत हुआ।
उन्होंने अपने भाषण की शुरुआत कुछ इस तरह की थी –
स्वामी जी का शिकागो विश्व धर्म परिषद् का भाषण (Swamiji’s speech at the Chicago World Council of Religions)
अमेरिका के बहनों और भाइयों,
मेरे हृदय को अकथनीय आनंद से भर देता है। मैं आपको दुनिया के सबसे प्राचीन भिक्षुओं के नाम पर धन्यवाद देता हूं, मैं आपको धर्मों की माता के नाम से धन्यवाद देता हूं, और मैं सभी वर्गों और संप्रदायों के लाखों-करोड़ों हिंदू लोगों की ओर से आपको धन्यवाद देता हूं। मेरा धन्यवाद, इस मंच पर कुछ वक्ताओं को भी, जिन्होंने पूर्व के प्रतिनिधियों का जिक्र करते हुए, आपको बताया है कि दूर देशों के ये लोग अलग-अलग देशों में सहनशीलता के विचार को ले जाने के सम्मान का दावा कर सकते हैं। मुझे गर्व है कि मैं एक ऐसे धर्म से हूं जिसने दुनिया को सहिष्णुता और सार्वभौमिक स्वीकृति दोनों की शिक्षा दी है। हम न केवल सार्वभौमिक सहिष्णुता में विश्वास करते हैं, बल्कि हम सभी धर्मों को सत्य के रूप में स्वीकार करते हैं। मुझे एक ऐसे राष्ट्र से संबंधित होने पर गर्व है जिसने पृथ्वी के सभी धर्मों और सभी देशों के उत्पीड़ितों और शरणार्थियों को शरण दी है। मुझे आपको यह बताते हुए गर्व हो रहा है कि हमने अपने हृदय में इस्राएलियों के शुद्धतम अवशेषों को इकट्ठा किया है, जो दक्षिणी भारत में आए थे और उसी वर्ष हमारे साथ शरण ली थी जिसमें उनके पवित्र मंदिर को रोमन अत्याचार द्वारा टुकड़े-टुकड़े कर दिया गया था। मुझे उस धर्म से संबंधित होने पर गर्व है जिसने महान पारसी राष्ट्र के अवशेष को आश्रय दिया है और अभी भी उसका पालन-पोषण कर रहा है। मैं आपको, भाइयों, एक भजन की कुछ पंक्तियाँ उद्धृत करूँगा, जो मुझे याद है कि मैंने अपने शुरुआती लड़कपन से दोहराई थी, जो हर दिन लाखों मनुष्यों द्वारा दोहराई जाती है: “जैसे विभिन्न धाराएँ विभिन्न मार्गों में अपने स्रोतों से होती हैं जिन्हें लोग अपनाते हैं विभिन्न प्रवृत्तियों के माध्यम से, विभिन्न यद्यपि वे दिखाई देते हैं, टेढ़े या सीधे, सभी तेरी ओर ले जाते हैं। वर्तमान सम्मेलन, जो अब तक आयोजित सबसे पवित्र सभाओं में से एक है, अपने आप में गीता में बताए गए अद्भुत सिद्धांत की दुनिया के लिए एक घोषणा है: “जो कोई भी मेरे पास आता है, चाहे वह किसी भी रूप में हो, मैं उस तक पहुंचता हूं; सभी मनुष्य उन रास्तों से संघर्ष कर रहे हैं जो अंत में मेरी ओर ले जाते हैं। साम्प्रदायिकता, धर्मांधता और उसकी भयंकर संतान, धर्मान्धता, इस सुन्दर धरती पर लंबे समय से काबिज है। उन्होंने पृथ्वी को हिंसा से भर दिया है, इसे बार-बार मानव रक्त से सराबोर कर दिया है, सभ्यता को नष्ट कर दिया है और पूरे राष्ट्र को निराशा में भेज दिया है। यदि ये भयानक दैत्य न होते, तो मानव समाज आज की तुलना में कहीं अधिक उन्नत होता। परन्तु उनका समय आ गया है; और मुझे पूरी उम्मीद है कि इस सम्मेलन के सम्मान में आज सुबह जो घंटा बजाया गया है, वह सभी कट्टरतावाद, तलवार या कलम से सभी उत्पीड़नों और उसी की ओर जाने वाले लोगों के बीच सभी असभ्य भावनाओं की मौत की घंटी हो सकता है लक्ष्य।
स्वामी विवेकानद जी की मृत्यु
साल 1899 में अमेरिका से लौटते समय स्वामी विवेकानंद जी बीमार हो गए थे ।
जीवन के अन्तिम दिन उन्होंने शुक्ल यजुर्वेद की व्याख्या की और कहाकी एक और विवेकानन्द चाहिये, यह समझाने के लिये कि इस विवेकानन्द ने अब तक क्या किया है।
उस समय तक स्वामी विवेकानंद की प्रसिद्धि विश्व भर में थी। वे लगभग 3 साल तक बीमारियों से लड़ते रहे। कहते हैं कि अपनी जिंदगी के आखिरी दिन यानी 4 जुलाई 1902 को भी उन्होंने अपना ध्यान करने की दिनचर्या को नहीं बदला। रोज की तरह सुबह दो तीन घंटे तक उन्होंने ध्यान किया और ध्यानावस्था में ही महासमाधि ले ली थी ।
बेलूर में गंगा तट पर उनका अंतिम संस्कार किया गया था । जहां उनका अंतिम संस्कार किया गया था उसी गंगा तट के दूसरी ओर उनके गुरु रामकृष्ण परमहंस का अंतिम संस्कार हुआ था।
स्वामी विवेकानद जी शिक्षा-दर्शन और विचार
स्वामी जी उस समय प्रचलित अंग्रेजी शिक्षा व्यवस्था के विरोधी थे, उस समय की शिक्षा केवल सिर्फ बाबुओं की संख्या बढ़ा रही थी । स्वामी जी शिक्षा द्वारा लौकिक एवं पारलौकिक दोनों जीवन के लिए लोगो को तैयार करना चाहते थे .
स्वामी जी ऐसी शिक्षा चाहते थे जो बालको का पूर्ण विकास करती है । उनका मनना था की शिक्षा ऐसी हो जो बालको को आत्मनिर्भर बनाकर अपने पैरों पर खड़ा करती है। उनकी दृष्टि में शिक्षा वह है जो जनसाधारण को जीवन संघर्ष के लिए तैयार करती है , जो चरित्र निर्माण करता हो , जो समाज सेवा की भावना विकसित करता हो तथा जो शेर जैसा साहस पैदा कर सके .
स्वामी जी व्यावहारिक शिक्षा को व्यक्ति के लिए उपयोगी मानते थे न की सैद्धान्तिक शिक्षा को .
स्वामी विवेकानंद जी मानते थे कि हर शख्स को अपने जीवन में एक संकल्प निश्चत करना चाहिए और अपनी पूरी जिंदगी उसी संकल्प के लिए न्यौछावर कर देना चाहिए, तभी आपको सफलता मिल सकेगी। स्वामी विवेकानन्द के शब्द-
तुमको कार्य के सभी क्षेत्रों में व्यावहारिक बनना पड़ेगा। सिद्धान्तों के ढेरों ने सम्पूर्ण देश का विनाश कर दिया है।
स्वामी विवेकानंद जी का मानना था कि जो भी कार्य करो पूरी शिद्दत से करो । वे स्वयं भी जो कार्य करते थे पूरी कर्तव्यनिष्ठा से करते थे और अपना पूरा ध्यान उसी कार्य में लगाते थे शायद इसी गुण ने उन्हें महान बनाया।
स्वामी विवेकानंद जी का मानना था कि परोपकार की भावना समाज के उत्थान में मद्द करती है इसलिए सभी को इसमें अपना योगदान देना चाहिए। वे कहते थे कि ‘देने का आनंद पाने के आनंद से बड़ा होता है’।
स्वामी विवेकानंद जी सादा जीवन जीने में विश्वास रखते थे। वे भौतिक साधनो से दूर रहने पर जोर देते थे। उनका मानना था कि भौतिकवादी सोच इंसान को लालची बनाती है।
स्वामी विवेकानंद जी बालक एवं बालिकाओं दोनों को समान शिक्षा की बात करते थे . उनका यह भी मानना था की धार्मिक शिक्षा, पुस्तकों द्वारा न देकर आचरण एवं संस्कारों द्वारा देनी चाहिए।
पाठ्यक्रम में लौकिक एवं पारलौकिक दोनों प्रकार के विषयों को स्थान देना चाहिए।शिक्षा, गुरू गृह में प्राप्त की जा सकती है। शिक्षक एवं छात्र का सम्बन्ध अधिक से अधिक निकट का होना चाहिए।
सर्वसाधारण में शिक्षा का प्रचार एवं प्रसार किया जान चाहिये। देश की आर्थिक प्रगति के लिए तकनीकी शिक्षा की व्यवस्था की जाय। मानवीय एवं राष्ट्रीय शिक्षा परिवार से ही शुरू करनी चाहिए।
स्वामी विवेकानंद के शिक्षा पर विचार मनुष्य-निर्माण की प्रक्रिया पर केन्द्रित हैं, न कि केवल किताबी ज्ञान पर।
स्वामी विवेकानन्द जी काराष्ट्र के लिए योगदान-(Contribution of Swami Vivekananda to the nation)
उन्तालीस वर्ष के छोटे से जीवनकाल में स्वामी विवेकानंद जी जो कार्य कर गए, वे आनेवाली अनेक पीढ़ियों तक मार्गदर्शन करेगी . तीस वर्ष की आयु में स्वामी विवेकानंद ने शिकागो, अमेरिका में विश्व धर्म सम्मेलन में हिंदू धर्म का प्रतिनिधित्व किया और हिंदू धर्म को सार्वभौमिक पहचान दिलवाई।
विलक्षण प्रतिभा से धनी स्वामी विवेकानंद ने अपना प्रभाव हर किसी के जीवन में डाला और उन्होनें समस्त युवाओं में आत्मविश्वास का संचार किया जिससे युवाओं को न सिर्फ मार्गदर्शन मिला बल्कि उनका जीवन भी संवरा ।
स्वामी विवेकानंद जी ने अपनी ज्ञान और दर्शन के माध्यम से लोगों में धर्म के प्रति नई और विस्तृत समझ विकसित की।
विवेकानंद जी ने पूर्व और पश्चिम देशों को आपस में जोड़ने में अपना अहम योगदान दिया।तथा अपनी रचनाओं के माध्यम से भारत के साहित्य को मजबूती देने में अहम भूमिका निभाई।
विवेकानंद अपनी पैदल भारत यात्रा के दौरान जातिवाद को देखकर बेहद आहत हुए थे जिसके बाद उन्होनें इसे खत्म करने के लिए नीची जातियो के महत्व को समझाया और उन्हें समाज की मुख्य धारा से जोड़ने का काम किया। विवेकानंद जी ने भारतीय धार्मिक रचनाओं का सही अर्थ समझाने में अपना महत्वपूर्ण योगदान दिया।
स्वामी जी ने दुनिया के सामने हिंदुत्व के महत्व को समझाने में अपना महत्वपूर्ण योगदान दिया। प्राचीन धार्मिक परम्पराओं पर नई सोच का समन्वय स्थापित किया।
स्वामी विवेकानंद जी द्वारा कहे गये अनमोल वचन-Precious words said by Swami Vivekananda
उठो जागो और तब तक नहीं रुको जब तक लक्ष्य प्राप्त नहीं हो जाता।
एक समय में एक काम करो और ऐसा करते समय अपनी पूरी आत्मा उसमे डाल दो और बाकि सब कुछ भूल जाओ.
पहले हर अच्छी बात का मजाक बनता है फिर विरोध होता है और फिर उसे स्वीकार लिया जाता है।
हर आत्मा ईश्वर से जुड़ी है, करना ये है कि हम इसकी दिव्यता को पहचाने अपने आप को अंदर या बाहर से सुधारकर। कर्म, पूजा, अंतर मन या जीवन दर्शन इनमें से किसी एक या सब से ऐसा किया जा सकता है और फिर अपने आपको खोल दें। यही सभी धर्मो का सारांश है। मंदिर, परंपराएं , किताबें या पढ़ाई ये सब इससे कम महत्वपूर्ण है।
एक विचार लें और इसे ही अपनी जिंदगी का एकमात्र विचार बना लें। इसी विचार के बारे में सोचे, सपना देखे और इसी विचार पर जिएं। आपके मस्तिष्क , दिमाग और रगों में यही एक विचार भर जाए। यही सफलता का रास्ता है। इसी तरह से बड़े बड़े आध्यात्मिक धर्म पुरुष बनते हैं।
एक अच्छे चरित्र का निर्माण हजारो बार ठोकर खाने के बाद ही होता है।
खुद को कमजोर समझना सबसे बड़ा पाप है।
बाहरी स्वभाव केवल अंदरूनी स्वभाव का बड़ा रूप है।
विश्व एक विशाल व्यायामशाला है जहाँ हम खुद को मजबूत बनाने के लिए आते हैं
सत्य को हजार तरीकों से बताया जा सकता है, फिर भी वह एक सत्य ही होगा।
जब तक आप खुद पर विश्वास नहीं करते तब तक आप भगवान पर विश्वास नहीं कर सकते।
जो कुछ भी तुमको कमजोर बनाता है – शारीरिक, बौद्धिक या मानसिक उसे जहर की तरह त्याग दो।
विवेकानंद जी ने कहा था – चिंतन करो, चिंता नहीं, नए विचारों को जन्म दो।
हम जो बोते हैं वो काटते हैं। हम स्वयं अपने भाग्य के निर्माता हैं।
स्वामी विवेकानंद जी का संक्षिप्त परिचय
1
नाम
स्वामी विवेकानंद
2
पूरा नाम
नरेंद्रनाथ दत्त
3
उपनाम
नरेंद्र, नरेन
4
पिता
विश्वनाथ दत्त
5
माता
भुवनेश्वरी देवी
6
जन्म
12 जनवरी 1863
7
जन्म स्थान
कोलकाता, पश्चिम बंगाल
8
गुरु
रामकृष्ण परमहंस
9
शिक्षा
B.A. स्नातक (1884)
10
सस्थापक
रामकृष्ण मठ और रामकृष्ण मिशन
11
साहित्यक कार्य
राज योग, कर्म योग, भक्ति योग, मेरे गुरु और अल्मोड़ा से किलंबू तक की व्याख्या
12
सन्यास
केवल 1887 में केवल 25 वर्ष की अवस्था में ब्रह्मचर्य ले लिया
13
में भारत-भ्रमण
1890-93 तक में भारत-भ्रमण किया
14
बाहर देश कि यात्रारा
31 मई 1893में मुम्बई से अमरीका रवाना
15
विश्व धर्म सम्मेलन, शिकागो में भाषण
11 सितम्बर 1893विश्व धर्म सम्मेलन, शिकागो में प्रथम भाषण
27 सितम्बर 1893में विश्व धर्म सम्मेलन, शिकागो में अन्तिम भाषण
16
मृत्यु
8 जुलाई 1902 वेलुरु, पश्चिम बंगाल, भारत में
प्रिय पाठको हमारे लेख में स्वामी विवेकानंद के बारे में सर्वश्रेष्ठ जानकारी। हमें खुशी होती है कि आपने हमारी पोस्ट को पढा इसके लिए आपका धन्यवाद और हम आपका स्वागत करते हैं और आपके समर्थन के लिए आपके आभारी हैं
हमें खुशी होगी यदि आप हमारे ब्लॉग को अपने मित्रों और परिवार के साथ साझा करें। यह ब्लॉक आपकी सहायता कर सकता है और आपके परिवार और दोस्तों के लिए भी उपयोगी हो सकता है यहां हम आपके लिए और लिंग साझा करना चाहेंगे जिससे आपकी और सहायता हो सके-
If you have a keen interest in the fascinating worlds of AI and economics, I invite you to visit my website. Discover insightful articles, resources, and the latest trends at the intersection of these two exciting fields. click here quickcameo.com
यदि आपने अभी तक हमारे ब्लॉक को सब्सक्राइब नहीं किया है तो आप वेबसाइट पर जाकर हमारी सदस्यता प्राप्त कर सकते हैं इसके लिए आपको ब्लॉक पर अपना ईमेल पता दर्ज कराना होगा इससे आप हमारे नवीनतम पोस्ट और अपडेट प्राप्त कर सकेंगे । कृपया आप हमारी पोस्ट को पढ़ें और अपने अनुभव के बारे में हमारे साथ साझा करें हमें आपकी प्रतिक्रिया की प्रतीक्षा रहेगी