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    खालिस्तान क्या है और क्या है इसका इतिहास ? What is Khalistan and what is its history?

    खालिस्तान क्या है और क्या है इसका इतिहास

     

    खालिस्तान क्या है

    खालसा पंथ की स्थापना गुरु गोविंद सिंह जी ने 1699 को बैसाखी वाले दिन आनंदपुर साहिब में की थी। खालिस्तान का अर्थ है खालसा की जमीन। पंजाब के सिखों के द्वारा या यूं कहें पंजाब के अलगाववादी सिख द्वारा प्रस्तावित राष्ट्र को यह नाम दिया गया है। खालिस्तान का विचार सबसे पहले सन 1929 के कांग्रेस के लाहौर अधिवेशन के समय अस्तित्व में आया हालांकि तब खालीस्थान की जगह सुखिस्तान  का इस्तेमाल होता था बाद में पंजाब के जगजीत सिंह चौहान ने  खालिस्तान का नाम दिया था । खालिस्तान के क्षेत्रीय दावे में मौजूदा भारतीय राज्य पंजाब, चंडीगढ़ ,हरियाणा ,हिमाचल प्रदेश, दिल्ली और इसके अलावा राजस्थान, उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड इत्यादि राज्यों के भी कुछ हिस्से शामिल है।

    खालिस्तान का इतिहास क्या है

    खालिस्तान के संपूर्ण इतिहास को समझने के लिए हमें भारत के उस समय को देखना होगा जिस समय भारत अंग्रेजों से आजादी के लिए संघर्ष कर रहा था। उसी समय एक आंदोलन की शुरुआत हुई जिसका नाम था गुरुद्वारा सुधार आंदोलन यह बहुत ही प्रभावशाली आंदोलन था .गुरुद्वारों को भ्रष्ट महंतों से मुक्त करने के लिए गुरुद्वारा सुधार आंदोलन शुरू किया गया था और गुरुद्वारों को प्रतिनिधि सिख निकायों को सौंपने के लिए किया गया था।भारत की गुरुद्वारों को उदासी सीख महंतो से मुक्त कराना जिन्हें उस समय के अकाली हिंदू महंत मानते थे हालांकि उदासी सिख समुदाय की स्थापना खुद गुरु नानक देव के बड़े बेटे श्री चंद्र ने की थी। इस संघर्ष में बहुत सारे सिखों को जेल में डाला गया बहुत सारे लोग मारे गए और बहुत सारे लोग घायल हुए उसी दौरान 1920 में  10,000 सिखों की एक बैठक के बाद शिरोमणि गुरुद्वारा प्रबंधक कमेटी का गठन होगा और आज भारत के गुरुद्वारों का प्रबंधन इसी कमेटी के द्वारा किया जाता है यह आंदोलन 5 वर्षों तक चला और उस समय सैकड़ों गुरुद्वारे जिसमें अमृतसर के गोल्डन टेंपल और पाकिस्तान के ननकाना साहिब गुरुद्वारे का नियंत्रण उदासी महंत से श्री शिरोमणि गुरुद्वारा प्रबंधक कमेटी के पास चला गया.

    सीखो में अलगाववादी भावना के जन्म की शुरुआत कैसे हुई

    1925 वर्ष आते-आते अंग्रेजों ने सिखों की ज्यादातर मांगों को स्वीकार कर लिया था। इस आंदोलन से जुड़े तीन तरह के लोग जुड़े थे पहले वह जो सिर्फ  गुरुद्वारों को उदासी सिख महंतो से मुक्त कराना चाहते थे। दूसरे वह लोग जो इस आंदोलन के समाप्त होने के बाद भी भारत की आजादी के लिए लड़ते रहे और तीसरे वह लोग थे जिन्होंने इसे  सांप्रदायिकता का मैच बना दिया। ऐसा करने वाले लोगों ने ही सिखों को हिंदुओं से और मुसलमानों से अलग दिखाने का प्रयास किया और यहीं से अलग  देश की मांग ने जन्म लिया जिसके लिए सिखिस्तान शब्द का प्रयोग किया गया। हिंदुओं के लिए सिखों के मन में अलगाव की भावना के पीछे दो बड़ी वजह थी पहली पहली हिंदू समाज में ज्यादा प्रभावशाली था। दूसरी वजह यह थी कि सरकारी नौकरी और राजनीति में सिखों की स्थिति बहुत कमजोर थी।

    1929 का कांग्रेस का लाहौर अधिवेशन

    वर्ष 1929 में कांग्रेस के लाहौर अधिवेशन हुआ ।जिसमे  में पंडित जवाहरलाल नेहरू ने पूर्ण स्वराज की मांग रखी । और अंग्रेजों से भारत को आजाद कराने का संकल्प लिया था । लेकिन कांग्रेस के लाहौर अधिवेशन का तीन  समूहों  ने विरोध किया  ।

     

    पहला ग्रुप मोहम्मद अली जिन्ना का ;    जिनका मानना था कि मुसलमान के लिए अलग देश होना चाहिए |

     दूसरा ग्रुप भारत के संविधान निर्माता भीमराव अंबेडकर का ;   जो दलितों के अधिकारों के लिए संघर्ष कर रहे थे |

     तीसरा ग्रुप मास्टर ताराचंद का  ;  मास्टर तारा सिंह का शिरोमणि अकाली दल. तारा सिंह ने ही पहली बार सिखों के लिए अलग राज्य की मांग की थी । जो यह कह रहे थे कि अगर भारत में मुसलमानों के लिए अलग से सीटें आरक्षित की जाती है | तो इसी आधार पर सिखों के लिए भी सीट आरक्षित होनी चाहिए | मास्टर ताराचंद शिरोमणि कमेटी के संस्थापक सदस्य थे  | जिसका गठन गुरुद्वारों को मुक्त कराने के लिए किया गया था | मास्टर ताराचंद ने अपने दो बड़ी बातों को लेकर लाहौर अधिवेशन का विरोध किया था  | पहली बात वह चाहते थे कांग्रेस सिखों को को नजरअंदाज ना करें दूसरी बात यह कि उन्हें डर था कि राजनीतिक हिस्सेदारी में सिखों की भूमिका कम ना हो जाए | क्योंकि उस समय भी हिंदू और  मुसलमानों के मुकाबले सिखों की आबादी बहुत कम थी  | इन्हीं वजहों से बाद में सिखों की अलग देश की मांग उठी और कहा जाता है कि खालिस्तान का विचार सबसे पहले यहीं से अस्तित्व में आया हालांकि तब खालीस्थान की जगह सुखीस्थान का इस्तेमाल होता था | भारत के आजादी के लिए हुए आंदोलन के दौरान अलग देश की मांग कई बार उठी |

    1947 का पंजाब सुबा  आंदोलन

    जब 1947 में भारत आजाद हुआ तो उसके दो हिस्से  हुए | पहला था भारत और दूसरा था पाकिस्तान|  विभाजन के दौरान संयुक्त पंजाब में जहां सिखों की आबादी ज्यादा थी उसका पश्चिमी हिस्सा पाकिस्तान में चला गया और पूर्वी पंजाब भारत का हिस्सा बन गया | अर्थात पंजाब भी दो हिस्सों में बट गया और इससे सीखो का अलग देश का सपना टूट गया  | इससे नाराज अकाली नेताओं ने सांप्रदायिक सिद्धांतों को सिर्फ राजनीति का केंद्र बना लिया |  इन लोगों का तब यह भी कहना था कि सिख समुदाय के अधिकारों को सिर्फ वही अभिव्यक्त कर सकते  है | उन्होंने लगातार सिखों के साथ भेदभाव की बातें कहीं जो कि उस समय गलत थी | भारत और पाकिस्तान के बंटवारे के बाद असंतुष्ट  अकाली दल ने  तथा तारा सिंह ने सिखों के लिए अलग राज्य की मांग रखी । इसी मांग को लेकर 1947 में पंजाबी सुबह आंदोलन शुरू हुआ। इसका मकसद था पंजाबी भाषा बोलने वाले लोगों को एक अलग राज्य बनाना  | भारत सरकार ने साफ तौर पर पंजाब को अलग करने से मना कर दिया। यह पहला मौका था जब पंजाब को भाषा के आधार पर अलग दिखाने की कोशिश हुई। लेकिन उस समय सरकार इस मांग को इसलिए नहीं मानी  क्योंकि तब उसे यह लग रहा था कि राज्य की मांग की आड़ में अलग सिख राज्य का सपना देखा जा रहा है और भारत का संविधान धर्म के आधार पर इसकी इजाजत नहीं देता है | अलग पंजाब के लिए जबरदस्त प्रदर्शन शुरू हुए। पूरे पंजाब में 19 साल तक अलग सिक्स सुबा के लिए आंदोलन और प्रदर्शन होते रहे इस दौरान हिंसा की घटनाएं बढ़ने लगे आखिरकार 1966 में इंदिरा गांधी सरकार ने पंजाब को तीन हिस्सों में बांटने का फैसला किया।

    1966 में इंदिरा गांधी सरकार द्वरा पंजाब को तीन हिस्सों में बांटने का फैसला

    1966 में इंदिरा गांधी सरकार ने पंजाब को तीन हिस्सों में बांटा | पहला हिस्सा सिखों की बहुलतावाला पंजाब ,दूसरा हिस्सा, हिंदी भाषा बोलने वालों के लिए हरियाणा था |और पंजाब के कुछ पर्वतीय इलाके को हिमाचल प्रदेश में मिला दिया गया।| इसके अलावा तीसरा हिस्सा चंडीगढ़ को केंद्र शासित प्रदेश और पंजाब और हरियाणा की संयुक्त राजधानी बना दिया गया | इस बड़े फैसले के बावजूद कई लोग इस बंटवारे से खुश नहीं थे। कुछ लोग पंजाब को दिए गए इलाकों से नाखुश थे, तो कुछ साझा राजधानी के विचार से खफा थे। पंजाब के इस बंटवारे के बाद ही खालिस्तान की राजनीति में एक नया मोड़ आया यह वह दौर था जब खालिस्तान शब्द का ज्यादा इस्तेमाल होना शुरू हो गया पंजाब बंटवारे के बाद अकाली दल ने कई  मांगे सरकार के सामने रखी उस समय भी देश में इंदिरा गांधी की ही सरकार थी  |

    आनंदपुर साहिब प्रस्ताव 1973

    पंजाब सुबा आन्दोलन से  अकाली दल को खूब राजनितिक फायदा मिला पार्टी ने कांग्रेस को 1967 और 1969विधानसभा चुनावों में कड़ी टक्कर दी ।पर 1972 के  चुनाव में अकालियों के बढ़ते राजनीति  के समय के  लिए काफी खराब साबित हुआ। कांग्रेस सत्ता में आई ।  1973 में अकाली दल ने आनंदपुर साहिब रिजोल्यूशन के द्वारा  अपने राज्य के लिए ज्यादा अधिकारों की  मांग की | जिसमे उन्होंने  भारत की केंद्र सरकार का केवल रक्षा, विदेश नीति, संचार और मुद्रा पर अधिकार हो जबकि अन्य सब विषयों पर राज्यों के पास पूर्ण अधिकार हों पर 1973 में शिरोमणि अकाली दल ने 12 लोगों की कमेटी बनाई जिन्होंने आनंदपुर साहिब रिजोल्युशन पास किया |इस रिजोल्युशन की तीन बड़ी मांगी थी ।

    पहली मांग ; यह थी कि पंजाब की नदी सतलुज और व्यास के पानी का बंटवारा फिर से किया जाए ।

    दूसरी मांग ; थी चंडीगढ़ को पूरी तरह से पंजाब को सौंप दिया जाए ।

     तीसरी मांग  ; थी की हरियाणा हिमाचल प्रदेश और राजस्थान के उन जिलों को जहां सिखों की आबादी ज्यादा है उन्हें पंजाब में शामिल कर दिया जाए |

    जब आनंदपुर साहिब रिजोल्यूशन  पास हुआ तब पंजाब में शिरोमणि अकाली दल के राजनीतिक स्थिति काफी कमजोर हो चुकी थी ऐसे में अकाली दल के नेता इंदिरा गांधी की सरकार पर ज्यादा दबाव बना नहीं सके सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि अकाली दल सभी सिखों के प्रतिनिधित्व का दावा करता था  पर 1952 से 1980 के बीच हुए चुनाव में अकाली दल को पंजाब में औसतन 50 प्रतिशत वोट भी नहीं मिले यह वही दौर था जब पंजाब में आतंकवाद का दौर शुरू हुआ |

    पंजाब में भिंडरावाला का आतकवाद

    शुरुआती दिनों में इंदिरा गांधी और पंजाब कांग्रेस के अध्यक्ष ज्ञानी जेल सिंह दोनों ने ही भिंडरावाला का समर्थन किया था क्योंकि भिंडरावाला के जरिए इंदिरा गांधी पंजाब में अकाली दल को कमजोर करना चाहती थी लेकिन इंदिरा गांधी का यह कदम उनके लिए सबसे बड़ी गलती साबित हुआ क्योंकि 1980 से 1984 के बीच अर्थात इन 4 सालों में पंजाब में सैकड़ों निर्दोष की दिनदहाड़े हत्या हुई और हिंदू और सिखों के बीच टकराव पैदा करने की पूरी कोशिश की गई यह दौर था जब पंजाब में आतंकवाद फैल रहा था भिंडरावाला ने शुरुआत में निरंकारी और खालिस्तान का विरोध करने वालों को अपना निशाना बनाया और इसके बाद पत्रकार नेता पुलिस और हिंदू समुदाय के लोग भी उसके निशाने पर आते चले गए जुलाई 1982 तक भिंडरावाला इतना मजबूत हो चुका था कि उसने अमृतसर के स्वर्ण मंदिर में अपनी जड़ें बहुत मजबूत कर ली थी और जून 1984 तक हालात इतने बिगड़ चुके थे कि स्वर्ण मंदिर को खालिस्तानी अलगाववादियों से मुक्त कराने के लिए इंदिरा गांधी सरकार के पास सेना के अलावा कोई और विकल्प बचा नहीं था देश के अंदरूनी मामले मैं इतने बड़े स्तर पर सेना का इस्तेमाल पहली बार हुआ था 5 जून 1984 को भारतीय सेना को स्वर्ण मंदिर में घुसना पड़ा और इसे ही ऑपरेशन ब्लू स्टार कहां गया  |

    ऑपरेशन ब्लू स्टार 1984

    यह ओपरेशन 1 से 8 जून तक चला |जिसमे  पंजाब में रेल सड़क और हवाई सेवा बंद कर दी गईं। स्वर्ण मंदिर को होने वाली पानी और बिजली की सप्लाई बंद कर दी गई। अमृतसर में पूरी तरह कर्फ्यू लगा दिया गया था। स्वर्ण मंदिर में आने-जाने वाले सभी रास्तो को पूरी तरह से सील कर दिया गया था । 5 जून 1984 को रात 10:30 बजे ऑपरेशन को शुरू किया गया था। इस दौरान खालिस्तानी आतंकियों ने भी सेना पर खूब गोलीबारी की। 6 जून तक भिंडरांवाले और उसके कमांडरों को मर दिया गया | ऑपरेशन 10 जून दोपहर को समाप्त हुआ जिसमें 83 जवान शहीद हुए और 493 खालिस्तानी आतंकवादी मारे गए जिनमें जनरल सिंह भिंडरावाला भी शामिल था भिंडरावाला के मारे जाने के बाद इंदिरा गांधी के खिलाफ सिखों में बहुत गुस्सा था | और 31 अक्टूबर 1984 की सुबह इंदिरा गाँधी के दो सिख अंग रक्षको  ने उनकी हत्या कर दी इसी के बाद देश में बड़े पैमाने पर सिखों के खिलाफ दंगे हुए | इन दंगों के बाद धीरे-धीरे भारत में खालिस्तान की मांग कमजोर पड़ने लगी अगस्त 1985 में तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी के साथ एक समझौते पर हस्ताक्षर करके शिरोमणि अकाली दल के नेता हरचंद सिंह ने चुनावी राजनीति में शामिल होने पर सहमति दी हालांकि इसके बावजूद पंजाब में आतंकवादी हमले जारी रहे | जैसे –

    23 जून 1985 को एयर इंडिया के कनिष्क विमान को हवाई यात्रा के दौरान कनाडा में रह रहे खालिस्तान समर्थक आतंकवादियों ने बम से उड़ा दिया जिसमें 329 लोग मारे गए थे | बब्बर खालसा के आतंकियों ने इसे भिंडरांवाले की मौत का बदला करार दिया।

    10 अगस्त 1986 को ऑपरेशन ब्लूस्टार को लीड करने वाले पूर्व सेना प्रमुख जनरल अरुण वैद्य  की हत्या कर दी गई |वैद्य की पुणे में दो बाइक सवार आतंकियों ने हत्या कर दी थी। खालिस्तान कमांडो फोर्स ने इस हत्या की जिम्मेदारी ली थी।

    31 अगस्त 1995 को एक सुसाइड बॉम्बर ने पंजाब के CM बी एन  सिंह की कार के पास खुद को उड़ा लिया था। इसमें बी एन सिंह की मौत हो गई थी। सिंह को आतंकवाद का सफाया करने का श्रेय दिया जाता था।

    हालांकि यहां समझने वाली बात यह है कि पंजाब हिंसा और आतंकी माहौल को देखते हुए वर्ष 1987 में राष्ट्रपति शासन लगा दिया गया और इसके बाद सीधे वर्ष 1992 में पंजाब में विधानसभा चुनाव करवाया गया महत्वपूर्ण बात यह है कि 1984 में सिख दंगों और उसके बाद हुई आतंकवादी घटना के बावजूद तब पंजाब में कांग्रेस वापस सरकार बनाने में कामयाब हो गई | अर्थात अगली सरकार कांग्रेस की ही बनी और मुख्यमंत्री बने कांग्रेस के नेता बेअंत सिंह लेकिन 31 अगस्त 1995 को उन्हें भी कार बम धमाके में मार डाला गया

    आज भारत में खालिस्तान के विचार को बहुत ही सारे सिखों ने नकार दिया है सच्चाई यही है लेकिन विदेशों में बैठे खालिस्तानी संगठन आज भी भारत के टुकड़े टुकड़े करने का षड्यंत्र रचते हैं और इन संगठनों को पाकिस्तान का भी समर्थन मिलता है और कैनडा इन सब के लिए एक सुरक्षित जमीन बन चुका है  |यही वजह है कि भारत में अक्सर इसका प्रभाव बना ही रहेता है |

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