कॉलेजियम पर पुनर्विचार की आवश्यकता क्यों ?
हमारे देश की न्यायपालिका विश्व की श्रेष्ठतम न्याय व्यवस्था में गिनी जाती है । न्यायपालिका को संविधान ने प्रजातंत्र के प्रहरी की भूमिका में संविधान की रक्षा का दायित्व सौंपा है । संविधान के शेष दोनों अंगों कार्यपालिका तथा विधायिका के कार्यों की समीक्षा का दायित्व भी न्यायपालिका के पास है । संविधान में तीनों अंगों की सीमाएं निर्धारित है ताकि तीनों ही अंग सामंजस्य बनाकर देश के लोकतांत्रिक ढांचे को सुरक्षित रख सके ऐसा इसलिए है कि किसी भी प्रकार से शासन में तानाशाह का भाव परिलक्षित ना हो । परंतु हाई कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट के जजों की नियुक्ति को लेकर सरकार और न्यायपालिका में अक्सर टकराव की स्थिति बन जाती है इस बार विवाद फिर से गहरा गया है क्योंकि 25 नवंबर को केंद्रीय कानून मंत्री किरण रिजिजू जब जजों की नियुक्ति प्रक्रिया को गैर संवैधानिक बताया। उन्होंने कहा कि यह बताया जाए कि क्या कॉलेजियम व्यवस्था का संविधान में कहीं कोई जिक्र है या नहीं । यही कारण है कि समय-समय पर कॉलेजियम व्यवस्था पर उंगलियां उठती रहती है ।
केंद्रीय कानून मंत्री किरण रिजिजू ने ऐसा क्यों कहा या फिर कोलेजियम व्यवस्था पर अक्सर विवाद क्यों हो रहा है या फिर कॉलेजियम पर बार बार पुनर्विचार की बात की आवश्यकता क्यों पड़ती है इसे जानने के लिए हमें पूरी कॉलेजियम व्यवस्था को शुरू से जानना होगा कि कोलेजियम क्या है ? तथा या कब से शुरु हुआ ।
कॉलेजियम व्यवस्था पर पुनर्विचार की मांग वाली रिट याचिका पर चीफ जस्टिस डी० वाई० चंद्रचूड़ ने पुनर्विचार कि सहमति दी है ।
कॉलेजियम व्यवस्था क्या है
कॉलेजियम एक न्यायिक नियुक्ति की प्रक्रिया है । कॉलेजियम वह व्यवस्था है जिसके द्वारा सर्वोच्च न्यायालय और उच्च न्यायालयों के न्यायाधीशों की नियुक्ति और स्थानांतरण किया जाता है जिसमें भारत के चीफ जस्टिस और सुप्रीम कोर्ट के चार वरिष्ठत्तम जजों का एक समूह होता है यह 5 लोग मिलकर तय करते हैं न्यायिक नियुक्ति को । इनका प्रतिवेदन राष्ट्रपति पर बाध्यकारी होता है । कोलेजियम के बारे में कही भी कुछ लिखित रूप में नही मिलता ।और न ही ऐसा कोई कानून है जो हमें यह बताये कि यह क्या है न ही इसके बारे में संविधान में ही कही कोई उलेख है इसकी क्या संरचना है, इसका संगठन क्या है तथा इसकी प्रक्रिया क्या है इसके बारे में कुछ नही पता है ।कॉलेजियम जैसी व्यवस्था का प्रारम्भ 1993 में सुप्रीम कोर्ट के एक निर्णय के द्वारा सामने आया।
कॉलेजियम व्यवस्था की शुरुआत कब हुई?
* 1993 में सर्वोच्च न्यायालय ने अपने एक निर्णय में कॉलेजियम जैसी व्यवस्था की स्थापना की जो न्यायिक नियुक्तियों से संबंधित थी संविधान के निर्माण के समय से जो प्रक्रिया चली आ रही थी ।न्यायिक नियुक्तियों की सर्वोच्च न्यायालय ने उसे दरकिनार करके कॉलेजियम जैसी संस्था का निर्माण किया ।
* कॉलेजियम को सर्वोच्च न्यायालय ने बताया कि यह न्यायिक नियुक्तियों तथा न्यायाधीशों के स्थानांतरण से संबंधित है । जो कि राष्ट्रपति के लिए बाध्यकारी भी होगा ।
* हमारे देश में 3 तरह के कानून होते हैं पहला संविधान का कानून दूसरा संविधान की व्याख्या या न्यायिक निर्णय तथा तीसरा होता है संसद का कानून परंतु कॉलेजियम संस्था का जो निर्माण हुआ है वह दूसरे प्रकार की कानूनी संस्था के द्वारा बनाए गए हैं अर्थात ना ही इसका संविधान में उल्लेख है और ना किसी कानून में इसका उल्लेख है इसका उल्लेख सर्वोच्च न्यायालय के एक निर्णय में है।
* यह वह समय था जब न्यायपालिका और व्यवस्थापिका के बीच शक्तियों का विभाजन हो गया तथा सुप्रीम कोर्ट ने न्यायपालिका की नियुक्ती के अधिकार को अधिग्रहित कर लिया।
* जब कॉलेजियम व्यवस्था का प्रादुर्भाव हुआ उस समय इसमें 3 लोग होते थे एक मुख्य न्यायाधीश और दो सर्वोच्च न्यायालय के वरिष्ठ न्यायाधीश। 1998 तक इसकी संख्या 3 थी परंतु 1998 में इसकी संख्या बढ़ाकर 5 हो गई एक भारत का मुख्य न्यायाधीश तथा चार सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश होते हैं जो यह तय करते हैं कि न्यायाधीशों की नियुक्ति तथा उनका स्थानांतरण
* संविधान में कहीं भी कॉलेजियम जैसी व्यवस्था का जिक्र नहीं हुआ है अपितु संविधान कभी यह नहीं कहता कि सुप्रीमकोर्ट स्वयं अपने न्यायाधीशों की नियुक्ति करें परंतु सवाल यह उठता है कि न्यायपालिका ने स्वयं को यह अधिकार कैसे दे दिया इस प्रश्न का उत्तर हमें पिछले तीन न्यायाधीश मामलों में मिलेगा ऐसे बहुत से न्यायिक फैसले हुए हैं जिसने कॉलेजियम प्रणाली की संरचना का निर्माण किया है परंतु इन तीन न्यायाधीश मामले ने कॉलेजियम के विकास में बहुत बड़ा योगदान दिया है।।
प्रथम न्यायाधीश मामला (1981)
प्रथम न्यायाधीश मामले में न्यायिक नियुक्तियों और स्थानांतरण के संबंध में न्यायालय ने कहा कि परामर्श का मतलब सहमति नहीं होता बल्कि विचारों का आदान-प्रदान होता है तथा बताया कि न्यायिक नियुक्तियों और स्थानांतरण में भारत के मुख्य न्यायाधीश की सिफारिश की प्रधानता को ठोस कारण से अस्वीकार किया जा सकता है तथा इस बात की ओर इशारा किया कि इसमें सरकार की भी भूमिका होनी चाहिए इस निर्णय ने 1993 तक न्यायिक नियुक्तियों में न्यायपालिका पर कार्यपालिका को प्राथमिकता दी ।
द्वितीय न्यायाधीश मामला (1993)
इस मामले में 9 जजों की बेंच ने कहा कि जजों की नियुक्ति में चीफ जस्टिस की राय को बाकी लोगों की राय के ऊपर माना जाएगा जिसमें चीफ जस्टिस की व्यक्तिगत राय नहीं होगी बल्कि मुख्य न्यायाधीश यह सलाह अपने दो वरिष्ठतम सहीयोगियों से विचार-विमर्श करने के बाद देंगे यह सलाह राष्ट्रपति के लिए मानना बाध्यकारी होगा । न्यायलयअपने पूर्व के फैसले को परिवर्तित किया और कहा कि परामर्श का अर्थ सहमति प्रकट करना है।
तृतीय न्यायधीश मामला (1998)
1998 में न्यायाधीशों की नियुक्ति में न्यायालय ने मत दिया की परामर्श प्रक्रिया को केवल मुख्य न्यायाधीश के परामर्श को पूर्ण नहीं माना जाएगा । बल्कि उनके साथ चार वरिष्ठ न्यायाधीशों की भी परामर्श आवश्यक हो जाएगी । यदि इनमें से दो न्यायाधीश का मत पक्ष में नहीं है तो न्यायाधीश की नियुक्ति की सिफारिश नहीं भेजी जा सकती ।या यू कहे कि यह सुप्रीम कोर्ट कॉलेजियम का आकार बड़ा करते हुए 5 न्यायाधीशों का एक समूह बना दिया
2014 में बनाया गया राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग
- न्यायिक नियुक्ति आयोग( NJAC)अगस्त 2014 में संसद ने संविधान( 99 वा संशोधन )अधिनियम 2014 पारित किया जिसमें सर्वोच्च न्यायालय और उच्च न्यायालयों में न्यायाधीशों की नियुक्ति के लिए कॉलेजियम प्रणाली के स्थान पर एक स्वतंत्र आयोग का गठन का प्रावधान किया गया।
- न्यायिक नियुक्ति आयोग को कॉलेजियम व्यवस्था को प्रतिस्थापित करने के लिए लाया गया था । ताकि न्यायिक नियुक्ति में पारदर्शिता लाया जा सके ।
- न्यायिक नियुक्ति आयोग में एक अध्यक्ष के साथ 6 सदस्य होंगे जिसमें भारत के मुख्य न्यायाधीश के अलावा सर्वोच्च न्यायालय के दो वरिष्ठ न्यायाधीश भारत के कानून मंत्री और दो प्रतिष्ठित सदस्य होंगे दो प्रतिष्ठित व्यक्तियों का चुनाव चयन समिति द्वारा होगा। दो प्रतिष्ठित व्यक्ति 3 साल की अवधि के लिए नामित किए जाएंगे और वह पूरा नामांकन के पात्र नहीं होंगे। चयन समिति में भारत के प्रधानमंत्री लोकसभा में विपक्ष के नेता होंगे भारत के मुख्य न्यायाधीश होंगे।
- न्यायपालिका के नियुक्ति तथा स्थानांतरण की व्यवस्था को पारदर्शी बनाने हेतु केंद्र में भाजपा की पूर्ण बहुमत की सरकार बनने के बाद एक प्रभावी विकल्प संसद के समक्ष प्रस्तुत किया गया। और न्यायिक नियुक्ति की इस व्यवस्था को विधायिका ने सर्वसम्मति से स्वीकार कर लिया। परंतु सर्वोच्च न्यायालय ने संविधान संशोधन विधेयक के जरिए बनाए गए राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग 2014 के अमल में आने से पहले ही अपने न्यायिक समीक्षा के अधिकार का प्रयोग करते हुए निरस्त कर दिया।
- इस कारण से आम जनमानस में भी यह सवाल खड़ा हो गया कि कोई भी व्यक्ति स्वयं के मामले में न्यायाधीश नहीं हो सकता इसके लिए हमेशा किसी तीसरे पक्ष की आवश्यकता पड़ती ही है परंतु न्यायपालिका ने स्वयं से संबंधित मामले का निर्णय स्वयं ही दे दिया।
- न्यायपालिका का यह निर्णय उचित था या अनुचित कहना तो गलत होगा परंतु न्यायपालिका को इस विषय पर थोड़ा समय लेते हुए कुछ बेहतर उपाय तलाश करना चाहिए था।
- संविधान द्वारा न्यायालय को न्यायिक समीक्षा का अधिकार उपलब्ध होने के बावजूद उसे यह नहीं भूलना चाहिए कि हमारा देश एक प्रजातांत्रिक तथा लोकतांत्रिक देश है जहां सर्वोच्च शक्ति जनता के हाथों में ही होती है। और देश का संसद देश की जनता का प्रतिनिधित्व करने के कारण वह सर्वोच्च सभा है। तथा
- संविधान ने संसद को संविधान संशोधन का अधिकार केवल संसद को ही दिया है । जब संसद से पूर्ण सहमति से कोई कानून बना दिया जो कि न्यायिक नियुक्ति से संबंधित था तो न्यायालय को इतनी जल्दबाजी नहीं करनी चाहिए थी । क्योंकि यह कोई सामान्य न्यायिक समीक्षा का मामला नहीं था ।इस कानून को न्यायालय को थोड़ा समय देना चाहिए था जब कानून लागू हो जाता तब इसके गुण दोष के आधार पर यदि न्यायालय इस कानून की समीक्षा करता तो लोगों में इसकी स्वीकार्यता अधिक होती परंतु सर्वोच्च न्यायालय ने इसे संविधान के आधारभूत ढांचे से छेड़छाड़ बताते हुए इसे रद्द कर दिया । तथा यह भी कहा कि यह विधेयक न्यायपालिका की स्वतंत्रता के लिए खतरा है।
- तथा न्यायपालिका का कहना है कि हमारी शासन व्यवस्था शक्ति पृथक्करण के सिद्धांत पर आधारित है जिसमें व्यवस्थापिका कार्यपालिका और न्यायपालिका एक दूसरे से स्वतंत्र होकर कार्य करते हैं। पर न्यायिक नियुक्ति आयोग के कारण न्यायपालिका के कार्य क्षेत्र में कार्यपालिका का दखल अधिक बढ़ेगा जो कि संविधान के नियमों नियमों के विपरीत है। और राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग में कानून मंत्री की उपस्थिति निर्णय को प्रभावित कर सकते हैं।
- अनुच्छेद 124 मैं सिर्फ न्यायाधीशों से परामर्श का उल्लेख है ना की कार्यपालिका का इसलिए इस लिहाज से भी राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग संविधान के खिलाफ होगा ।
न्यायिक नियुक्तियों के संवैधानिक प्राविधान
* भारतीय संविधान के अनुच्छेद 124 (2)में यह बताया गया है कि सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीशों की नियुक्ति किस प्रकार होगी अनुच्छेद 124 (2) में निर्दिष्ट राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग की सिफारिश पर राष्ट्रपति अपने हस्ताक्षर और मुद्रा सहित अधिपत्र द्वारा उच्चतम न्यायालय के प्रत्येक न्यायाधीश को नियुक्त करेगा और वह न्यायाधीश तब तक पद धारण करेगा जब तक वह 65 वर्ष की आयु प्राप्त नहीं कर लेता है।
* अनुच्छ 217 कोई न्यायधीश राष्ट्रपति को संबोधित अपने हस्ताक्षर सहित लेख द्वारा अपना पद त्याग सकेगा ।
किसी न्यायाधीश को उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीश को हटाने के लिए अनुच्छेद 124 के खंड 4 में उप बंधित रीति से उसके पद से राष्ट्रपति द्वारा हटाया जा सकेगा ।
किसी न्यायाधीश का पद राष्ट्रपति द्वारा उससे उच्चतम न्यायालय का न्यायाधीश नियुक्त किए जाने पर या राष्ट्रपति द्वारा भारत के राज्य क्षेत्र में किसी अन्य उच्च न्यायालय को आंतरिक हो जाएगा
कॉलेजियम व्यवस्था की समस्याएं
- कॉलेजियम व्यवस्था में पारदर्शिता का अभाव कॉलेजियम की बैठक बंद कमरों में आयोजित की जाती है तथा इसका कोई अधिकारी सचिवालय भी नहीं है । और इसके संबंध में बाहर किसी को जानकारी नहीं होती है । जोकि इसकी पारदर्शिता पर सवालिया निशान खड़ा करता है।
- कोलेजियम एक गैर संवैधानिक प्रणाली है जिसका जिक्र संविधान में कहीं भी नहीं है ना ही इसके नियमों का कोई लिखित रूप प्राप्त होता है।
- न्यायधीश आधा समय नियुक्तियों की पेचीदगी में ही व्यस्त रहते हैं इस वजह से न्याय देने की उनकी जो मुख्य जिम्मेदारी है उस पर असर पड़ता है ।
- कॉलेजियम व्यवस्था पर समय-समय पर भाई भतीजावाद के आरोप लगते रहते हैं । आरोप यह भी है कि इसमें किसी की योग्यता को दरकिनार करके भाई बढती भाई भतीजावाद को महत्व दिया जाता है। यदि साल 2020 की बात करें तो भारत में 25 उच्च न्यायालयों में से 7 के मुख्य न्यायाधीश किसी के बेटे ,भतीजे ,भांजे या दामद थे तथा 8 मुख्य न्यायाधीश भी किसी न किसी प्रकार से न्यायाधीशों से संबंधित थे 25 में से 5 मुख्य न्यायाधीश ऐसे थे जिनका किसी भी न्यायधीश से संबंध नहीं था ना ही उनके परिवार में कोई न्यायाधीश था ना वकील ।
- संविधान में न्यायपालिका तथा सरकार की शक्तियों का बटवारा स्पष्ट तौर से किया गया है । यहां सवाल किया है कि जजों की नियुक्ति किस प्रकार हो ताकि उसमें पारदर्शिता लाया जा सके। पूर्व की स्थितियों को देखते हुए कॉलेजियम उस समय की मांग की हिसाब से सही व्यवस्था थी परंतु बदलते वातावरण के हिसाब से कॉलेजियम अपना अपना वह काम नहीं कर सका जिस उम्मीद से उसको गठित किया गया था। जब कॉलेजियम का गठन किया गया था उसने योग्यता के आधार पर नियुक्ति प्रक्रिया को आधार बनाया परंतु समय के साथ इसमें कई प्रकार की त्रुटियां देखी गई।
- कॉलेजियम व्यवस्था ने न्यायपालिका के चरित्र पर सवाल खड़े कर दिए हैं जिसके कारण इसमें सुधार की आवश्यकता है ।
कॉलेजियम व्यवस्था की त्रुटियों को किस प्रकार सही किया जाए
न्यायिक नियुक्ति के विकल्प में न्यायपालिका को अधिक सावधानी बरतनी चाहिए। तथा न्यायिक नियुक्ति के मामले में न्यायपालिका को स्व संपूर्णता की भाव से बाहर निकलना होगा और न्यायपालिका को पारदर्शिता के साथ-साथ आंतरिक समीक्षा के माध्यम से स्वयं के गुण दोषों को देखते हुए उनमें कुछ बेहतर परिवर्तन करने होंगे। जिससे पारदर्शिता को बढ़ाया जा सके न्यायालय पर जनता का विश्वास बढ़ सके क्योंकि हमारा देश लोकतांत्रिक देश है जहां लोगों का शासन होता है। अर्थात जनता ही शासन का आधार होती है।
और जहां तक बात सरकार की रही तो न्यायपालिका की नियुक्ति का पूर्ण अधिकार सरकार को भी नहीं दिया जा सकता क्योंकि सरकार अपने राजनीतिक हित के लिए किसी ऐसे व्यक्ति का चुनाव कर सकती हैं जो उनके लिए सही हो।
भारत में 80 परसेंट मुकदमों में सरकार स्वयं वादी है ऐसे में अगर सरकार ही न्यायिक नियुक्ति का हिस्सा बन जाएगा तो वह ऐसे व्यक्ति का चुनाव कर सकता है जो सरकार के पक्ष में अपना निर्णय दे इससे न्याय व्यवस्था प्रभावित हो सकता है। तथा जब सरकार ही न्यायाधीशों की नियुक्ति करेगी तो उनके खिलाफ मुकदमों की सुनवाई कौन करेगा।
परंतु न्याय व्यवस्था में पारदर्शिता लाने के लिए स्वयं ही न्यायपालिका को ही कोई कदम उठाने चाहिए जो कि न्यायपालिका ने अभी तक ऐसा कोई भी कदम नहीं उठाया है और और खुद न्यायपालिका को न्याय व्यवस्था में रिफॉर्म करने की आवश्यकता है
अब तक कॉलेजियम पर भाई भतीजावाद का आरोप लगता रहा है क्योंकि ऐसा देखा भी गया है कि जो भी पूर्व के जजों से न्यायाधीशों से गाजी सुख के रिश्तेदार दोस्त यह जान पहचान के लोग होते थे अक्सर उन्हें ही नियुक्त किया जाता था पर न्यायपालिका को इस से भी बचना चाहिए। कॉलेजियम का एक ऐसा अलग से संगठन होना चाहिए जहां जहां बैठक बुलाई जा सके और बाकी के न्यायाधीश अपनी राय रख सकें।
तथा यह भी स्पष्ट होना चाहिए कि न्यायाधीशों की नियुक्ति किस आधार पर की जा रही है इसका पूरा विवरण कॉलेजियम के पास होना चाहिए ताकि कभी भी इस व्यवस्था पर कोई उंगली उठाता है तो उससे पूरा ब्योरा उपस्थित किया जा सके।